
रिपोर्ट/तान्या कसौधन
Mahakumbh Mela 2025: अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद ने उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के सामने यह मांग रखी है कि कुंभ मेले में मुस्लिम व्यापारियों को दुकानें न लागाने का आदेश जारी किया जाए। इस संदर्भ में प्रशासन को जरूरी कदम उठाने चाहिए, उनके इस बयान के बाद बवाल मचा हुआ है। आल इंडिया मुस्लिम जमात ने इसका विरोध किया। वहीं, बागेश्वर बाबा धीरेंद्र शास्त्री समेत कई अन्य धर्माचार्यों ने भी इस मांग का समर्थन किया है। जिसके बाद से मुसलमानों की कुंभ में नो एंट्री को लेकर बहस शुरू हो गई है।
सुमेरू पीठ के शंकराचार्य ने फैसले को बताया जायज
वही, धर्म की नगरी काशी में सुमेरू पीठ के शंकराचार्य स्वामी नरेंद्रानंद सरस्वती ने धर्म की रक्षा के लिए कुंभ में मुस्लिम समाज की एंट्री को पूरी तरह प्रतिबंधित किए जाने की मांग को जायज बताया है। उन्होंने कहा कि यदि मुस्लिमों को कुंभ में एंट्री मिलती है, तो सनातन धर्म के लोगो की आस्था को ठेस पहुंचेगा।
साथ ही, विपक्ष के नेताओं के द्वारा कुंभ में सभी लोगों को एंट्री दिए जाने की वकालत किए जाने पर स्वामी नरेंद्रानंद ने कहा कि जो नेता मुस्लिमों की एंट्री की मांग कर रहे है, उनकी बुद्धि भ्रष्ट हो गई है। उन नेताओं को पहले मस्जिदों और मक्का में हिंदुओं की दुकान खुलवाना चाहिए,फिर कुंभ में किसी के एंट्री पर बात करना चाहिए। यदि वह ऐसा नहीं करते हुए,तो वह समाज के माहौल को खराब करना चाहते है, ऐसे लोगों को सरकार जेल में डाल दें,क्योंकि इनकी भाषा देशहित के बजाए आतंकवाद और उग्रवाद वाली है।
भड़के मुस्लिम संगठन व नेता
एक तरफ जहाँ एक तरफ लोग इस बात की मांग कर रहे है वहीँ, मुस्लिम संगठन और नेता भड़क गए हैं। सपा सांसद जिया उर रहमान बर्क ने कुंभ में मुस्लिमो की एंट्री पर बैन को लेकर सरकार को सीधे धमकी दी है। हालांकि कुछ विद्वानों ने कहा है कि जब मक्का-मदीना में हज यात्रा के दौरान हिन्दुओं या अन्य धर्म के लोगों की आवाजाही पर प्रतिबंध खुद सऊदी अरब की सरकार लगाती है तो हिन्दुओं के इस बड़े और पवित्र आयोजन में मुस्लिमों को दूरी बनानी चाहिए।
ये है कुम्भ का इतिहास
वहीँ, अगर कुंभ के इतिहास की बात करे तो कुम्भ मेले का पहला ऐतिहासिक उल्लेख चीनी यात्री ह्वेनसांग के वर्णन में मिलता है। वह सातवीं शताब्दी में भारत आया और 644 ईस्वी में प्रयाग गया। वहां उसने कन्नौज के प्रतापी सम्राट हर्षवर्धन को देखा, जो इस मेले में अपना सब कुछ दान कर देते थे। यहां तक कि अपने शरीर पर पहने हुए वस्त्र भी वह दान कर देते थे। कुम्भ मेला एक तरह से तत्कालीन भारत के सभी पंथों, संप्रदायों और विचारों के समागम का प्रयास था। यहां शास्त्रार्थ होता था और एक नया रास्ता निकल कर आता था। ‘वादे वादे जायते तत्त्वबोधः’ का यह एक प्रमाण था।