
आचार्य राजकुमारजी शास्त्री ने गुरु-शिष्य के गूढ़ रहस्यों को विस्तार से समझाया
सद्गुरु आश्रम, टांक, राजस्थान के आध्यात्मिक विचारक एवं बंगलामुखी उपासक आचार्य पंडित राजकुमारजी शास्त्री ने गुरु-शिष्य के गूढ़ रहस्य बताते हुए कहा कि गुरु के कल्याणकारी निर्देशों के बाद भी शिष्य कभी-कभी वे ग़लतियाँ कर बैठते हैं जो उन्हें नहीं करनी चाहिए, तब गुरु क्या करते हैं? समर्थ गुरु पूरा प्रयास करते हैं की शिष्य गड्ढे में ना गिरे किंतु इसके बाद भी यदि शिष्य गड्ढे में गिर ही जाए तो वे उसका साथ नहीं छोड़ते बल्कि वे भी उसके साथ गड्ढे में उतर जाते हैं जिससे वे उस शिष्य को उस खोह से बाहर निकाल सकें। गुरु-शिष्य दोनों गड्ढे में होते हैं अंतर मात्र इतना रहता है की शिष्य गड्ढे में गिरता है और गुरु उसमें उतरता है। शिष्य का गड्ढे में गिरना एक घटना है और गुरु का उसमें उतरना एक योजना है, एक बेहोश चित्त की भाव दशा का परिणाम होता है तो दूसरा जागृत चित्त का उद्यम।
गुरु का दायित्व बहुत गहरा होता है, गुरु ऐसी घोषणाएं नहीं करते जिससे मनुष्य का चित्त आशंकित हो जाए! वे इस मर्यादा का निष्ठापूर्वक पालन करते हैं कि यदि भवितव्यता बदली ना जा सके तब बतानी भी नहीं चाहिए। समर्थ गुरु, हमने तो कहा था! हमने पहले ही घोषणा कर दी थी, अब भोगो.. इत्यादि कह कर अपनी गुरुता की रक्षा नहीं करते क्योंकि उनके लिए अपनी गुरुता की रक्षा करने से अधिक महत्वपूर्ण अपने शिष्य की रक्षा करना, उसके कष्टों का निवारण करना होता है। सदगुरु की अहेतु की कृपा हमारे इस विश्वास को और अधिक दृढ़ करती है की जैसे एक अच्छा चिकित्सक रोग का विधान निदान सब देता है, यदि कोई रोग असाध्य हो तब भी वह रोगी से यह नहीं कहता की तुम मरने वाले हो!

कौन इस बात को नहीं जानता की जन्म मिला है तो मृत्यु भी होगी। मृत्यु जब होगी तब होगी लेकिन उसकी घोषणा अभी से करके लोगों के बचे हुए जीवन को भययुक्त कर देना बुद्धिमानी नहीं होती। वैसे ही गुरु भी अपने स्नेहियों को आशंकित नहीं नि:शंक करते हैं, अपने शिष्य को भययुक्त नहीं भयमुक्त करते हैं, वे जीवन के प्रति अविश्वास नहीं विश्वास के भाव का संचार करते हैं, वे समस्या के उल्लेख में नहीं,उन्मूलन के लिए उद्यम करते हैं। विद्वान लोग भविष्य पढ़ सकते हैं किंतु समर्थ गुरु या संत भविष्य पढ़ते ही नहीं, गढ़ते भी हैं, इसलिए-
“गुरु को सर पर राखिए, चलिए आज्ञा माही।
कह कबीर ता दास को तीन लोक भय नाहीं॥”